” दुर्गा पूजा ” सिर्फ नाम ही पर्याप्त है बंगालियों में उत्साह और जोश भरने के लिए |

दुर्गा पूजा बंगाल में सिर्फ त्यौहार हीं नहीं है बल्कि उनके जीवन का सबसे प्रमुख और महत्वपूर्ण हिस्सा है | पूजा के आने के 3-4 महीने पहले से हीं आप इसकी धूम और इसकी तैयारी में जुड़े लोगों को देख सकते हैं | चाय की दुकानों में तो यह एक विशेष चर्चा का विषय होता है | नवकिशोरों के लिए एक प्रतिस्पर्धा, किसके क्षेत्र से कौन सबसे ऊँची प्रतिमा और आकर्षक पंडाल बनाता है | कलाकारों के लिए उनके कला का प्रदर्शन, चाहे वो शिल्पकार हो या रंगमंच के नायक-नायिका | कपड़ो की दुकानों में तो खचाखच भीड़, नए-नए परिधान खरीदने के लिए और दर्जियों की तो चाँदी हो जाती है | 

” भैया थोड़ा शर्ट की जेब फट गयी है, सील दोगे ? “ 

” अभी एक घडी की भी फुर्सत नहीं है| एक महीने के बाद आना, पता नही है पूजा में कितना काम होता है |” यही जवाब होता है इनका | वैसे देखा जाए तो पूजा सभी के लिए एक सुनहरा अवसर लाता है, ऊर्जा का संचार फिर से हर व्यक्ति में शुरू हो जाता है | पूजा के आगमन होते हीं सम्पूर्ण वातावरण हर्ष विभोर हो उठता है |

टी.वी. पर रात दिन बस पूजा की ही धूम रहती है | दुर्गा पूजा की पुरातन कहानियाँ, तैयारी की कहानियाँ, पंडालों की तो कभी पूजा अर्चना का विवरण | हमारी जो मेनस्ट्रीम मीडिया है वह भी सिर्फ इसी के इर्द-गीर्द समाचार प्रस्तुत करती है | हाँ, सारा भारत इस त्योहार को मनाता है, और बंगाल में मुख्य और विराट प्रकार से मनाते हैं जोकि लोगो तक पहुँचाना आवश्यक है लेकिन कितनी संचार मीडिया, चाहे टी.वी. पर हो या न्यूज़ पेपर पर हो या कमर्शियल रेडियो हो, जोकि इसी दुर्गा पूजा का दूसरा पहलु भी दर्शाते हैं | वो कहते हैं ना हर सिक्के के दो पहलु होते हैं , तो इस पर्व के भी दो पहलु हैं | एक तस्वीर जिससे लगभग सब अवगत हैं किन्तु दूसरी तस्वीर की शायद हीं लोगों को जानकारी होगी और शायद हीं वर्त्तमान मीडिया  इस तथ्य को सामने लाती  हैं | 

 बहुसँख्यक लोग जो सुनना चाहते वही दिखाती हैं वर्तमान-कालीन मीडिया | मेरी बातें थोड़ी कटाक्ष भरी जरूर हैं किन्तु यही सत्य हैं |     

बात अगर रेडियो की करें तो ऐ.आई.आर (आकाशवाणी) 20-30 भाषाओँ में प्रसारण करती है लेकिन कई छोटे -छोटे समुदाय है जिनकी अपनी उपभाषाएं है, अपनी विविध संस्कृति हैं, जिसकी तो चर्चा हीं नही की जाती |

मैं बंगाल के एक सामुदायिक/ कम्युनिटी रेडियो में काम करता हूँ और एक ऐसेही छुपे तथ्य का पता लगाने और लोगो तक पहुंचाने हमारे दफ्तर की टीम निकली थी हुडूर-दुर्गा के बारे में जानने | 

उनकी बात हुई सांथाल समुदाय के एक जानकार व्यक्ति से |

” औरों के लिए दुर्गा पूजा खुशहाली का पर्व हैं किन्तु हमारे लिए ये मातम का पर्व हैं | हमारे एक योद्धा का निधन हुआ था इसदिन, हम नेतृत्व-हीन हो गए थे | लोग नवीन  परिधान खरीदते हैं, पकवान बनाते हैं लेकिन हम शोक जताते हैं |”

यह बातें कुछ आश्चर्यचकित करने वाली हैं परन्तु एक गुढ़ रहस्य हैं इसके पीछे | वो योद्धा था “हुडूर-दुर्गा ” जोकि हमारे बीच महिषासुर के नाम से विख्यात है | बहुत ही अल्पसँख्यक लोग इस पर्व के विषय से परिचित है जिसको “दसाई” पर्व बोलते हैं | 

सांथाल पुरुष महिलाओं के परिधान पहन कर गाँव-गाँव गाते बजाते हुए, नृत्य करते हुए अपने योद्धा का शोक जताते है |

 

” पुरातन-काल में खेरवालों का एक राजा हुआ करता था ( सांथाल उस समय खेरवाल था, जिनसे बाद में कट कर सांथाल समुदाय बना ) | हमारे राजा चैच्म्पा नामक क्षेत्र में राज करते थे | चैच्म्पा हमारा निवास स्थान था | खुशहाली और समृद्धि का देश था और लोग सुखी-संपन्न थे | इसी दौरान कुछ घुसपैठियों ने ( जोकि इस देश के नही थे, संभवतः आर्यन ) हमपर हमला बोल दिया लेकिन हमारे राजा परमवीर और शक्तिशाली थे जिनकी बराबरी वो घुसपैठियें नही कर पाए और षड़यंत्र रचने लगे | हमारे पूर्वज महिलाओ पर कतई हमला नहीं करते थे जोकि उन षड्यंत्रकारियों ने भाप लिया और छल से उनके हीं एक नारी ( आर्यन नारी) से हमारे हुडूर-दुर्गा की शादी करा दी |

जब हमारे राजा अपनी नव-वधु के हाथो छल से मारे गए तब हम नेतृत्व हीन हो गए | हमारे पूर्वजों को पलायन करना पड़ा और खुद की रक्षा के लिए महिलाओ का परिधान पहन लिया ताकि शत्रुगण पहचान ना पाए | दसाई हुडूर दुर्गा के मृत्यु पूर्व भी मनाया जाता था किन्तु उस समय वह एक खुशहाली का त्योहार था जिसमें लोग नाचते-गाते थे | वही पर्व अब मातम में परिवर्तित हो गया है, गाने वही है बस “हाय-हाय” शब्द जुड़ गए है | 

हुडूर दुर्गा हमारा देवता नही है और हम इनकी पूजा भी नही करते किन्तु 4-5 दिन शहीद दिवस की  तरह मनाया जाता है | उसके समान राजा दूसरा कोई नही होगा | हमें अपना देश, अपनी सम्पन्नता  छोड़ कर भागना पड़ा था | 

जो बाहरी लोग ऐ थे उनके लिए तो हमारा राजा शत्रु था और क्यूंकि उनके राज के बाद से हुडूर-दुर्गा को शत्रु की भाँती चित्रित कर दिया गया, दुष्ट की छवि में ढाल दिया गया तो वह इतिहास बन गया |”

” हिन्दू ग्रंथों के हिसाब से हम हिन्दू नहीं है बल्कि हमें असुरों और दानवों की उपाधि दी गयी है | और तो और हमारे अपने हीं समुदाय के लोग हमारी पौराणिक कहानियों से, अपनी पहचान से वंचित है और नाहीं हमारे पास कोई साधन है उनतक हमारी बातें पहुँचाने का, उनको प्रेरित करने का | हमारे पास हमारी पुरातन धरोहर को बचा कर रखने का शायद हीं कोई साधन है |”

क्या हमारा मीडिया जोकि राजनीती से प्रभावित, प्रमुख धार्मिक समुदायों से प्रभावित इतना साहस रखता है की इस दूसरी छवि को यथावत तरीके से लोगो तक पहुँचाए ?

क्या हमारी मीडिया जनजातियों अथवा अल्पसंख्यक की पौराणिक कथाएं, उनके विलुप्त होती संस्कृति लोगो तक पहुँचाती है जबतक उसमे उनका फायदा न दिखे ?

क्या हमारी मीडिया आम जनता और अपने लोगों तक व्यक्तिगत सन्देश पहुँचाने में जरूरतमंदों, संचार से वंचित लोगों को मदद करती  है ?

क्या संभव है इनके लिए निष्पक्षता से संचार करना ?

निश्चित रूप से जवाब आपके पास होगा |  

लेखक : सौरव वर्मा, IUIF २०१७ Fellow